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गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा
उन बीते हुए लम्हों को
अनगिनित यादों को
शब्दों में पिरोना ऐसा ही है जैसा गागर में सागर भरना
नौ भाई बहन के बीच में सबसे थी छोटी
सबकी लाडली
जब जो चाहा उसे पाया
पिक्चर देखने का था शौक मुझे
कहने की देर थी कि
माँ के सामान मेरी बड़ी भाभी
कभी ना नहीं कर पातीं
बड़ी दीदी के बच्चों के बराबर थी मैं
याद है मुझे
दूध का गिलास पहले थमाती मुझे
तब आती उनके बच्चों की बारी
तेल लगा, दो चोटी कर मुझे स्कूल भेजतीं
बचपन में जब पड़ती बीमार
तब आती दूसरी दीदी की बारी
खूब देखभाल करतीं वो मेरी
पूर्व जनम में रही होंगी वो माँ मेरी
यादें हैं तीसरी दीदी की
पहला अक्षर ज्ञान हुआ तो
लिखी मैंने एक चिट्ठी
जवाब में आई एक चिट्ठी और कुछ रूपए
था मेरे लिखने पढ़ने पर ईनाम
बहुत ख़ुशी हुई
मेरे मन में आया क्या पढ़ना होता है इतना अच्छा
तो मैं बहुत पढूंगी
चौथी दीदी ने कराया स्कूल में दाखिला
ऊँगली पकड़ रिक्शे में बैठा हर रोज़
स्कूल पहुँचाना भी था काम उनका
और उस दिन से विश्वविद्यालय की पढाई का सफर
पूरा किया मैंने उनके सहारे
साथ रह कर,
भरपूर प्यार और सुख पाया मैंने
उनके उस प्यार को बार बार करती हूँ याद
जिसे उन्होंने लुटाया मुझपर
जीवनदान देने वाली पांचवी दीदी
पलक झपकने की देर होती और हाज़िर
मेरे सुख दुःख की साथी
कई साल गुज़ारे हमने साथ
यादें उस विशाल कोठी से हैं
उनमें रहने वालों से हैं
हम भाई-बहनों से हैं
माँ-पापा के अच्छे कर्मों का फल
हम सबने खूब पाया
बिना किसी अभाव के
फले फूले और खुश रहे हम
एक मीठी सी याद
हमारे लिए रोज़ आती मिठाई
जिसका नाम था “लौंगलता ”
आम के बगीचे से जब आता आम
होता हर सुबह ब्रेकफास्ट आम और दूध
पापा अपने हर बच्चों को करते थे बेहद प्यार
लेकिन था प्यार उनका बिलकुल सपनों सा
जब नींद खुली तो सपना हो ना सका अपना
यादें अपने तीनों भाइयों की जिन्होंने पापा
की कमी पूरी की
गागर में सागर तो भर न सकूंगी
लेकिन आज उन यादों को
श्रद्धांजलि ज़रूर अर्पित करना चाहूंगी .
– नीरू
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