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मैं सरकारी सेवा में था. रिटायर होने तक अपनी सभी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो चुका था. बेटी की शादी हुई तो वह अपने घर चली गयी. बेटा नौकरी करने गया तो वहीँ बस गया. अब ले दे कर अपनी पत्नी का ही सहारा था. उसे भी एक दिन दिल का दौरा पड़ा और वह मुझे अकेला छोड़ कर चली गयी. इस तरह मैं पूरे घर में अकेला रह गया.
पत्नी की मौत के बाद घर में खाना बनाने और घर के दूसरे कामों के लिए मैंने सोमा नाम की एक विधवा को रख लिया. वह काफी सालों तक मेरी निःस्वार्थ सेवा करती रही.
एक बार आधी रात को मेरी तबियत बहुत खराब हो गयी. मैंने उसे फ़ोन कर के मेरी तबियत ज़ादा ख़राब होने की सूचना दी. वह रात को ही मेरे घर आ गयी. दूसरे दिन डॉक्टर के पास ले गयी. मैं जब तक पूरी तरह स्वस्थ न हो गया वह मेरी सेवा करती रही.
उसकी निःस्वार्थ सेवा ने मेरा दिल जीत लिया. मुझे उससे एक तरह का लगाव हो गया. मैंने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा तो उसने भी हाँ कर दी.
मेरे इस निर्णय पर मेरे परिवार वालों और रिश्तेदारों, दोस्तों ने मेरी बहुत हँसी उड़ाई, लेकिन किसी ने यह जानने कि कोचिश नहीं की कि मैंने यह शादी क्यों की.
सोमा से शादी करने का मेरा एक ही मकसद था कि, पत्नी होने के नाते मेरे मरने के बाद उसे मेरी पेंशन मिलती रहे.
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